अक्ति-विषयक संस्कृत-साहित्यमें भी श्रीरामानुजाचार्य तथा ( उनके परमगुरु ) श्रीयामुनाचार्य के योगदान अप्रतिम है। प्रस्तुत पुस्तक में संकलित (पूर्वोक्त आचार्यव्दय की) पाँच रचनाएँ -आतयन्दारस्तोत्र ( स्तोत्ररत्न ),वरदवल्लाभास्तोत्र (चतु:र्थौकी ) तथा गद्यत्रय ( शरणागतिगदय, वैकुंठगद्य तथा श्रीरंगगद्य ) - श्रीवैष्णवजनोंको अपने प्राणोंके समान ही प्रिय है।भगवान् के अनुग्रह को प्राप्त करने हेतु उनकी शरणागति सर्व अपेक्षित है। अतः उस शरणागति - सिद्धांतका विशद प्रतिपादन "शरणागतिगद्य" तथा संक्षिप्त निर्देश "श्रीरंगगद्य" में प्राप्त होता है। सर्वेश्वर भगवान रंगनाथ से अनुकंपा करने हेतु प्रार्थना भी "श्रीरंगगद्य" में मिलती है; जबकि भगवत्कृपासे प्राप्त होनेवाले श्रुतिस्मृतिप्रतिपाद्य दिव्यधाम (वैकुंठ) और भगवत्स्वरूपका अदभुत विवेचन “श्रीवैकुं ठगद्य” में है। कदाचित अगवान जीवपर कृपा करने में संकोच करें, तो उस जीव को भगवत्कृपाभाजन बनाने हेतु ( आचार्यरूपा ) लक्ष्मीजी मध्यस्थता करती है; अतः उन महालक्ष्मीजीके महिमानिर्देशपूर्वक उनसे भगववनुग्रह प्राप्त करवाने हेतु निवेदन समग्र “वरदवल्लभस्तोत्र” तथा "शरणागतिगद्य" ( के आरंभ ) में प्रदर्शित है। इस प्रकार पूर्वोक्त आचार्यव्दय के व्दारा प्रमादित उक्त पाँचो कृतियाँ अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
इन पाँचो प्रबंधोके एक ही जिल्द में हिंद्यनुवादसहित प्रकाशित होने से इनके पाठकोंको विशेष सांविध्य होगा।